शेर-ओ-शायरी

जाँ निसार अख्तर (Jaanisar Akhtar)

कभी रहा हूँ मैं इस कदर बेसरो-सामाँ,
किसी की चश्मे-इनायत भी बार गुजरी है।
गमे-जहाँ को कभी हिम्मतों ने अपनाया,
कभी खुद अपनी मसर्रत भी बार गुजरी है।

-जाँ निसार अख्तर


1. बेसरो-सामाँ - बिना किसी सामान या सामग्री, जिन्दगी के जरूरी सामान के बिना 2. चश्मे-इनायत - कृपादृष्टि नजरे-इनायत 3. बार - भारी, वज्नी 4. मसर्रत - खुशी, हर्ष, आन्नद


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बीत जाती है एक पल में कभी,
जिन्दगी की हजार-हा घड़ियां।
एक लम्हें के इन्तिजार मं कभी,
सर्फ होती हैं सैकड़ों सदियाँ।

-जाँ निसार 'अख्तर'


1. हजार-हा - हजारों 2. सर्फ - व्यय, खर्च, उपभोग, बीतना