शेर-ओ-शायरी

मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib)

अपनी गली में मुझको न कर दफ्न बादे-कत्ल,
मेरे  पते से खल्क को क्यों तेरा  घर  मिले।


                           -मिर्जा गालिब


1. खल्क - जनता, अवाम

 

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अपने मरने का गम नहीं लेकिन,
हाय तुमसे जुदाई होती है।


                          -मिर्जा गालिब

 

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आये हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊं,
माना कि हमेशा  नहीं अच्छा, कोई दिन और।
जाते  हुए  कहते  हो  कयामत  को  मिलेंगे,
क्या खूब, कयामत का है गोया कोई दिन और।


                          -मिर्जा गालिब


1. कयामत - महाप्रलय, सारी दुनिया का उलट-पुलट, हश्र का दिन 2. गोया - मानो, जैसे

 

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आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक।
आशिकी सब्र - तलब और तमन्ना बेताब,
दिल का क्या रंग करूँ, खूने-जिगर होने तक।
हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन
खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक
गमे-हस्ती का 'असद' किससे जुज-मर्ग इलाज,
शम्अ हर रंग में जलती है, सहर होने तक।


-मिर्जा गालिब


1. सर - सुलझना 2. सब्र-तलब - जिसमें सब्र (धीरज, धैर्य) की आवश्यकता है। 3. बेताब - (i) अधीर, बेसब्र (ii) ब्याकुल, बेचैन 4. तगाफुल - उपेक्षा, बेतवज्जुही 4. जुज-मर्ग - मौत के अलावा 5. सहर - सुबह, सबेरा, प्रातःकाल, भोर