गैरों की बात छोड़िए गैरों से क्या मिला,
अपनों ने क्या दिया हमें, अपनों से क्या मिला।
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घटे अगर तो बस इक मुश्ते-खाक है इन्सां,
बढ़े अगर तो वुसअते-कौनेन में समा न सके।
-जिगर मुरादाबादी
1.मुश्ते-खाक - (i) मुट्ठी भर खाक (धूल)
(ii) मनुष्य, आदमी
2.वुसअते-कौनेन - दोनों जहाँ की विशालता
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जब-जब इसे सोचा है, दिल
थाम लिया मैंने,
इन्सान के हाथों से जो इन्सान पै गुजरी है।
-फिराक गोरखपुरी
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जब डूब रहा था कोई,
कोईभी न था साहिल पै,
इक भीड़ थी साहिल पर, जब डूब गया था कोई।
1. साहिल - किनारा, तट
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