सभी कुछ तो रहा है इस तरक्की के जमाने
में,
मगर यह क्या गजब है आदमी इंसाँ नहीं होता।
-खुमार बाराबंकवी
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सलीके से जिन्हें
एक घूंट भी पीना नहीं आता,
वह इतने हैं कि सारे मैकदे में छाए बैठे हैं।
1.मैकदा – शराबखाना
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सहारा न देती
अगर मौजे-तूफां,
डुबो ही दिया था हमें नाखुदा ने।
-मकीन अहसन कलीम
1.
मौज-लहर,
तरंग 2.नाखुदा-
मल्लाह, कर्णधार
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सिज्दे
करते भी है इंसां खुद दरे-इन्सां पै रोज,
और फिर कहते भी हैं बंदा खुदा होता नहीं।
-अर्श मल्सियानी
1.सिज्दा-इश्वर के लिए सर झुकाना, नमाज़
में जमीन पर सेर रखना
2.दरे-इन्सां पै - इंसान की चौकठ या दहलीज पर
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