शेर-ओ-शायरी

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न खिजां में है कोई तीरगी, न बहार में कोई रोशनी,
ये नजर-नजर के चराग है, कहीं जल गये, कहीं बुझ गये।


1.खिजां - पतझड़ की ऋतु 2. तीरगी - अंधेरा, अंधकार

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न मौजें, न तूफां, न माझी, न साहिल,
मगर मन की नैया बही जा रही है।
चला जा रहा है, वफा का मुसाफिर,
जहाँ भी तमन्ना लिये जा रही है।


1.साहिल- किनारा, तट 2. वफा- (i) निर्वाह, निबाह (ii) वफादारी, निष्ठा
 

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नाकामियों के बाद भी छूटा न हाथ से,
क्या जाने किस खयाल से दामाने-आरजू?


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निकली यह कहके आलमे-पीरी में तन से रूह,
बस अब हमारे रहने के काबिल यह घर नहीं।

-'शाद' अजीमाबादी


1. आलमे-पीरी- वृद्धावस्था 

 

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