न खिजां में है कोई तीरगी, न बहार में कोई रोशनी,
ये नजर-नजर के चराग है, कहीं जल गये, कहीं बुझ गये।
1.खिजां -
पतझड़ की ऋतु 2. तीरगी - अंधेरा, अंधकार
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न मौजें, न
तूफां, न माझी, न साहिल,
मगर मन की नैया बही जा रही है।
चला जा रहा है, वफा का मुसाफिर,
जहाँ भी तमन्ना लिये जा रही है।
1.साहिल-
किनारा, तट 2. वफा-
(i)
निर्वाह, निबाह (ii) वफादारी, निष्ठा
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नाकामियों के बाद भी छूटा न हाथ से,
क्या जाने किस खयाल से दामाने-आरजू?
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निकली
यह कहके आलमे-पीरी में तन से रूह,
बस अब हमारे रहने के काबिल यह घर नहीं।
-'शाद' अजीमाबादी
1. आलमे-पीरी- वृद्धावस्था
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