शेर-ओ-शायरी

          जाँ निसार अख्तर (Jaan Nisaar Akhtar)  Next >>

कभी रहा हूँ मैं इस  कदर  बेसरो - सामाँ,
किसी की चश्मे-इनायत भी बार गुजरी है।
गमे-जहाँ को कभी हिम्मतों ने अपनाया,
कभी खुद अपनी मसर्रत भी बार गुजरी है।

1.बेसरो-सामाँ - बिना किसी सामान या सामग्री, जिन्दगी के जरूरी सामान के बिना 2. चश्मे-इनायत – कृपादृष्टि, नजरे-इनायत

3. बार - भार,वजन,बोझ 4. मसर्रत - खुशी, हर्ष, आन्नद
 

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कल यही ख्वाब हकीकत में बदल जायेंगे,
आज जो ख्वाब फकत ख्वाब नजर आते हैं।
 

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कुछ जुर्म नहीं इश्क जो दुनिया से छुपाएं,
हमने तुम्हें चाहा है, हजारों में कहेंगे।

 

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तेरी हमदर्द नजरों से मिला ऐसा सुकूं मुझको,
मैं ऐसा सुकूं मरकर भी शायद पा नहीं सकता।


1.हमदर्द - दुख-दर्द बांटने वाली या वाला


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